कविता मेरे लिए, मेरे आत्म का, शेष जीवन जगत के स‌ाथ चलनेवाला रचनात्मक स‌ंवाद है। कविता भले शब्दों में बनती हो लेकिन वह स‌ंवाद अंतत: अनुभूति के धरातल पर करती है। इसलिए प्रभाव के स्तर पर कविता चमत्कार की तरह लगती है। इसलिए वह जादू भी है। स‌ौंदर्यपरक, मानवीय, हृदयवान, विवेकशील अनुभूति का अपनत्व भरा जादू। कविता का स‌म्बन्ध मूल रूप स‌े हृदय स‌े जोड़ा जाता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं स‌मझना चाहिए कि उसका बुद्धि स‌े कोई विरोध होता है। बल्कि वहाँ तो बुद्धि और हृदय का स‌ंतुलित स‌मायोजन रहता है; और उस स‌मायोजन स‌े उत्पन्न विवेकवान मानवीय उर्जा के कलात्मक श्रम और श्रृजन की प्रक्रिया में जो फूल खिलते हैं, वह है कविता ... !

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

भूख : चार कविताएँ



    
     (   एक  )


भूख जरूरी है
खाना खाने के लिए


 खाना जरूरी है
जिन्दा रहने के लिए


भले जिन्दा रहना जरूरी न हो
सब के लिए


पर जो जिन्दा हैं
उनके लिए
हर हल में खाना जरूरी है


चाहे रोटी खाएँ
चाहे पुलिस कि गोलियां !






              ( दो )

भूख आती थी
वह उसे मार देता था


भूख जिन्दा हो जाती थी
वह फिर उसे मार देता था


भूख लौट-लौट कर आ जाती थी
वह उसे उलट-उलट कर मार देता था


एक दिन भूख दबे पांव आई
और..
 उसे खा गई .










        ( तीन )

जो भूखे थे
वे सोच रहे थे रोटी के बारे में


जिनके पेट भरे थे
वे भूख पर कर रहे थे बातचीत
गढ़ रहे थे सिद्धांत
ख़ोज रहे थे सूत्र ....


कुछ और लोग भी थे सभा में
जिन्हौंने खा लिया था आवश्यकता से अधिक खाना


और एक दूसरे से दबी जबान में
पूछ रहे थे 
दवाईयों के नाम ...








    ( चार )

सीरियल किलर कि तरह
भूख
एक के बाद एक
कर रही है हत्याएं


और घूम रही है खुले आम यहां-वहां
देश भर में
      लोकतंत्र के छुट्टे सांड की तरह .  


          

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

स‌पनों की टोकरी


धरी-धरी लुट गयी
स‌पनों की टोकरी,
मिली नहीं नौकरी।
 
क्या हम कहें
कुछ कहा नहीं जाए,
जीवन से मौत अच्छी
स‌हा नहीं जाए।
 
झूठे अरमान हुए, 
स‌पनें बेइमान हुए,
अपने अनजान हुए
रहा नहीं जाए।
 
कर गई बाय-बाय
मुम्बई की छोकरी !
मिली नहीं नौकरी।
धरी-धरी लुट गयी ...
 
कितने जतन किए
पूरी की पढ़ाई,
फिर भी जमाने में
बेकारी हाथ आई।
 
दर-दर की ठोकर खाते,
पानी पी भूख मिटाते,
पर हम लड़ते ही जाते
जीवन की लड़ाई।
 
होकर मजबूर यारों
करते हैं जोकरी !
मिली नहीं नौकरी।
धरी-धरी लुट गयी ...



शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

बच्चा बना रहा है चित्र







आसमान गहरे नीले रंग का है

पंख फैलाए उड़ रहे हैं पंछी

चमक रहा है सूरज
जिसका लाल रंग अभी सूखा  नहीं है

एक बहुत ऊँचा हरा-भरा पहाड़

एक पारदर्शी नदी
जिसमें भरा है लबालब पानी
गाँधी जी की उजली धोती की तरह
झक उजला दिन

एक छोटा सा  घर
जिसमें भरा जाना है रंग

बच्चा बना रहा है चित्र
और ...
और बदल रही है दुनिया