कविता मेरे लिए, मेरे आत्म का, शेष जीवन जगत के स‌ाथ चलनेवाला रचनात्मक स‌ंवाद है। कविता भले शब्दों में बनती हो लेकिन वह स‌ंवाद अंतत: अनुभूति के धरातल पर करती है। इसलिए प्रभाव के स्तर पर कविता चमत्कार की तरह लगती है। इसलिए वह जादू भी है। स‌ौंदर्यपरक, मानवीय, हृदयवान, विवेकशील अनुभूति का अपनत्व भरा जादू। कविता का स‌म्बन्ध मूल रूप स‌े हृदय स‌े जोड़ा जाता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं स‌मझना चाहिए कि उसका बुद्धि स‌े कोई विरोध होता है। बल्कि वहाँ तो बुद्धि और हृदय का स‌ंतुलित स‌मायोजन रहता है; और उस स‌मायोजन स‌े उत्पन्न विवेकवान मानवीय उर्जा के कलात्मक श्रम और श्रृजन की प्रक्रिया में जो फूल खिलते हैं, वह है कविता ... !

सोमवार, 28 नवंबर 2011

बारहमासा

       
दिल्ली का दरबार देखो

रानी राजकुमार देखो

गूँगे बहरे राजसभासद

मंत्री अपना यार देखो



रंग बिरंगी कार देखो

बदहवास नर नार देखो

फटी जेब पर दिल चौराहा

फैशन स‌दाबहार देखो

बारिश तकिया,धूप बिछौना

मंहगाई की मार देखो

चौंसठवीं बरसी आजादी

माया अपरमपार देखो



अंतर मंतर काला जादू

चोर उचक्के डाकू स‌ाधु

नूरा कुश्ती धींगामुस‌्ती

मिलीजुली स‌रकार देखो

भालू बंदर स‌ाँप छछुंदर

नवयुग के अवतार देखो



जात जात बदजात देखो

मार रहे स‌ब हाथ देखो

दिन अँधेरा रात चाँदनी

रुपयों की बरसात देखो

मन में पैसा, तन में पैसा

पैसों के दिन रात देखो



हाथ तिरंगा भूखा नंगा

अड़ा राह में एक भिखमंगा



बात-बात में दंगा देखो

खून भरी है गंगा देखो

मन में खौफ,शहर में कर्फ्यू

घर-घर फटा लहँगा देखो

 सारे ग्यानी चुप बैठे हैं

देता स‌ीख अधंगा देखो



हड्डी-हड्डी खेल कबड्डी

बिक गयी तन की गंजी-चड्डी



मरघट-मरघट गाँव देखो 

इस पर उनके दांव देखो

मर गये स‌ारे मानुष-प्राणी

भूत के उल्टे पांव देखो

खेत-खेत बस स‌न्नाटा है

कहीं नहीं अब ठांव देखो



यहाँ-वहाँ हड़ताल देखो

बजता है करताल देखो

फटी लँगोटी, स‌िर पर टोपी

लीडर कौआ चाल देखो

नाच रहा बेताल देखो

मुँह में बोल न आँख में पानी

लेकिन बड़ा कव्वाल देखो



स‌ंसद स‌र्कस चिड़ियाखाना

जेल जुआघर पागलखाना



अच्छा पागल,सच्चा पागल

लुच्चा पागल, टुच्चा पागल

पक्का पागल, कच्चा पागल

बूढ़ा पागल,बच्चा पागल

चच्ची पागल,चच्चा पागल

पागल नोचे बाल देखो

पूछो नहीं स‌वाल देखो

स‌वा लाख में एक कलंदर

बांकी स‌ब बदहाल देखो

पिचके-पिचके गाल देखो

उतरी स‌बकी खाल देखो

लूट तमाशा बारहमासा 

देश हुआ कंगाल देखो !



मंगलवार, 22 मार्च 2011

चिड़िया

                      


आ रे चिड़िया

गा रे चिड़िया

ले थोड़ा कुछ खा रे चिड़िया



क्यों इतनी लगती है दुबली ?

क्या बीमार पड़ी थी पगली ?

बहुत दिनों पर आयी है तू

ठहर जरा

मत जा रे चिड़िया



आ रे चिड़िया ...



जो देगी तू पंख स‌लोने

दे दूँगा मैं स‌भी खिलौने

वर्षा वन की

नील गगन की

कथा हमें बतला रे चिड़िया



आ रे चिड़िया

गा रे चिड़िया

ले थोड़ा कुछ खा रे चिड़िया

                            * 

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

कुर्सी



बहुत पुरानी है
पिता की एक मात्र निशानी है
यह एक टांगवाली काठ की कुर्सी

नहीं मालूम
पिता के पास यह कुर्सी
कैसे और कहाँ स‌े आयी
पर स‌ुना है
इसी पर बैठ कर स‌मझदार पिता
मेरे भविष्य का नक्शा बनाते थे
घर चलाने का तिलस्मी गणित भी
वे इसी पर बैठ कर हल करते थे

उस नक्शे का 
और उस गणित का क्या हुआ
किसी को नहीं मालूम

खो गया 
या पिता ने ही कहीं छिपा दिया
कौन जाने

आज तो मेरे पास
न कोई गणित है
और न ही कोई भविष्य

इस देश की तरह
मेरे पास भी
बस एक टांगवाली यह काठ की कुर्सी है
जो कहीं स‌े गली है
कहीं स‌े जली है
मुझे अपने पिता स‌े उत्तराधिकार में मिली है!

          *          

शनिवार, 1 जनवरी 2011

नया स‌ाल

                                     
 वह आकर बैठ गया
 जैसे बैठ जाता है कलेजा

 उसके कपड़ों स‌े
 आ रही थी बारूद की गंध
 उसके नंगे पैरों में
 चिपकी थी पतझर की पीली पत्तियाँ
 उसकी आँखों में बचा रह गया था
 बीते स‌ाल के बाढ़ का पानी, कीचड़
 मृतकों की हड्डियाँ, औरतों की चीखें
 और बहुत-सा अंधेरा ...
 अनगिनत रिसते घाव थे उसकी पीठ पर
 खून स‌े तर थे दोनों हाथ

 बंद दरवाजे की
 हिलती स‌ाँकल की तरह
 काबिज था स‌मूचे दृश्य पर उसी का चेहरा

 शहर में
 मेरे घर में
 वह दाखिल हो गया चुपचाप

 खामोशी से रेंगता
 चढ़ गया दीवार के ऊपर
 बींचो-बीच कैलेंडर भर जगह घेर कर
 वह बैठ गया

 जैसे फन काढ़कर
 बैठ जाता है गेहुँअन ...