वह आकर बैठ गया
जैसे बैठ जाता है कलेजा
उसके कपड़ों से
आ रही थी बारूद की गंध
उसके नंगे पैरों में
चिपकी थी पतझर की पीली पत्तियाँ
उसकी आँखों में बचा रह गया था
बीते साल के बाढ़ का पानी, कीचड़
मृतकों की हड्डियाँ, औरतों की चीखें
और बहुत-सा अंधेरा ...
अनगिनत रिसते घाव थे उसकी पीठ पर
खून से तर थे दोनों हाथ
बंद दरवाजे की
हिलती साँकल की तरह
काबिज था समूचे दृश्य पर उसी का चेहरा
शहर में
मेरे घर में
वह दाखिल हो गया चुपचाप
खामोशी से रेंगता
चढ़ गया दीवार के ऊपर
बींचो-बीच कैलेंडर भर जगह घेर कर
वह बैठ गया
जैसे फन काढ़कर
बैठ जाता है गेहुँअन ...
शिल्प की दृष्टि से उच्च-कोटि की कविता बन पड़ी है। यह छोटी सी कविता बहुत भारी है- अर्थ में भी, शिल्प में भी। इसे तो मैंने हंस में पढ़ी थी। कविता के शिल्प पर मैं दंग रह गया था। बहुत-बहुत बधाई।
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